जामा मस्जिद का इतिहास History of Jama Masjid
जामा मस्जिद का सपना मुग़ल बादशाह शाह जहाँ ने देखा था सपना एक आयसी मस्जिद का था जिसमे इबादत गाह ऐसी हो की देखकर अपने आप मन में खुदा की बंदगी करने का मन करे यही नही शाह जहाँ चाहते थे की खुदा का दरबार उसके दरबार से ऊचा हो इतना ऊचा की खुदा की घर फ़र्स उसके तख़्त ताज के उपर हो उसके उनको लाल कीले सामने की स्थान की तलास थी उनकी तलास पूरी हुए लालकिले के ठीक सामने भोजला नाम के पहाड़ी पर इस छोटी सी पहाड़ी को मस्जिद बनाने के लिए चुना गया यह शाहजहाँ के दरबार के ठीक सामने थी आगे शाहजहाँ सपने के तहेत इसका काम सुरु कर दिया गया 6 अक्टूबर 1650 को मस्जिद को बनाने का काम सुरु हुआ मस्जिद का फ्लोर प्लान आगरा में स्थित जामा मस्जिद की तर्ज पर बनाया गया यह उससे काफी बड़ा था 80 मीटर लम्बी 27 मीटर चौड़ी इस मस्जिद को 6 सालो तक पांच हजार मजदूरों ने दिन रात काम करके बनाया इसके एक एक पत्थर में जान डाली इसके हर गुम्मज को एक एक करके चमकाया दोनों तरफ 41 मीटर ऊँची मीनार तामीर की गई इस मस्जिद में तीन गुम्मज बनाये गए इसके फ़र्स को काले और सफ़ेद कंक्रीट संगमरमर द्वारा बनाया गया ताकि यह देहने पर खूब सूरत दिखे और मुस्लिमो की इबादत में कोई कमी न हो इस मस्जिद एक आली सां मस्जिद है इसको बनाने में उस दौर में 10 लाख रुपए खर्च हुए थे पहले इस मस्जिद का नाम मस्जिदे जहाँ नुमा था जिसका अर्थ पूरी दुनिया को देखने वली मस्जिद इसके बड़े आकार के कारड यहाँ काफी लोग जमा होने लगे इससे लोगो ने इसे जामा मस्जिद कहना सुरु कर दिया यही नाम आगे चलकर जुमा मस्जिद हुआ यानि जहाँ जुमा की नमाज होती है आगे समय के साथ मस्जिदे जहाँ नुमा जामा मस्जिद कहलाने लगी जिस दौर में इस मस्जिद का निर्माड हुआ उस दौर में मुग़ल वास्तु कला अपने चरम पर थी यह वही समय था जब इस्लामी वास्तु कला कई बेहतरीन इमारतो में देखने को मिलती थी चूकी शाहजहाँ ने एक सपना देखा था वेह अपनी सासन काल में भारत दुनिया का खूबसूरत सहर बनाये गा इसके लिए शाहजहाँ ने शाहजहाँ बाग बसाया जो फ़िलहाल पुरानी दिल्ली के रूप में जाना जाता है इसी सहर में जामा मस्जिद तैयार की गई थी जो मुग़लइया कला की सम्रिध्य तक का बड़ा उधारड हुए मस्जिद के नक्कासी में हिन्दू और जैन वास्तु कला की भी छाप छोड़ी गई माना जाता है की जामा मस्जिद शाहजहाँ की आखरी अतरिक्त खर्चीली मस्जिद है और यही नही मुग़ल शाहजहाँ का आखरी अर्कितेच्तुरल काम था इसके बाद उह्नो ने किसी कलात्मक मस्जिद का नीड़ माड़ नही करवाया मस्जिद जब तैयार हुए इसके इमाम को लेकर काफी जद्दो जेहद किया गया बादशाह चाहते थे की इस खास मस्जिद के इमाम भी खास हो काफी समय तक इमाम की तलास की गई जो उज्बेकिस्तान के एक छोटे से सहर बुखारा में जाकर ख़तम हुए इमाम की लिए यहाँ एक नाम सामने आया वो था सय्यद अब्दुल गफूर साह सय्यद अब्दुल गफूर साह की इमामी में 24जुलाई 1656 को जामा मस्जिद में पहली बार नमाज अदा की गई इस दिन दिल्ली की अवाम के साथ शाहजहाँ और उनके सभी दरबारियों ने पहली बार जामा मस्जिद में नमाज अदा की मुग़ल बादशाह ने इमाम अब्दुल गफूर को इमामे सलतनत पड़ दे दी इसके बाद उनका खानदान ही इस मस्जिद की इमामत करता चला अ रहा है सय्यद अब्दुल गफूर के बाद सय्यद अब्दुल सकूर इमाम बने इसके बाद सय्यद अब्दुल रहीम सय्यद अब्दुल रहमान सय्यद अब्दुल करीम सय्यद मीर जीवान शाह सय्यद मीर अहमद अली सय्यद मोहम्मद शाह सय्यद अहमद बुखारी इमाम बने मस्जिद ऊचे पर है इस लिए दूर से दिखती है ये पूरी सरचना पांच फुट ऊचे पर है ताकि इसका भव्य परवेश आसपास के सभी इलाके को दिखाई डे सके सीढियों की चौराई उत्तर और दक्छिर में काफी अधिक है चौड़ी सीडियां और मेहराब दार प्रवेश द्वार इस मस्जिद की लोक प्रिये विषेस ताएँ है जामा मस्जिद का प्राथना गृह बहुत ही सुनदर है इसमें 11 मेहराब हैं जिसमे बीच वाला मेहराब अन्दर से बहुत बड़ा है मस्जिद का मुख्य प्रवेश लालकिले के सामने से पूर्वी तरफ से है किउंकि ये पहले सम्राटो द्वारा उपयोग में लाया जाता था यही कारड़ है की जामा मस्जिद का पूर्वी द्वार शुक्रवार को ही खुलता है अगर आप दिल्ली जाते हैं तो इस अतेहसिक जामा मस्जिद की सैर करना आपको आनद का अनुभव देगा ये सुबह 7 बाजे से 12 बाजे तक फिर दोपहर 1:30 बाजे से साम 6:30 बजे तक खुलती है मस्जिद में आप किसी भी दिन जा सकते हैं लेकिन इबादत के दौरान पर्यटकों का प्रवेश नही है मस्जिद में जाने के लिए आपको किसी भी प्रकार का पैसा नही लगता
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